कुछ दिनों पहले ग्वालियर कलेक्टर रुचिका चौहान ने एक ऐसा अजीबो गरीब आदेश जारी किया था, जिसको देखकर पूरे जिला प्रशासन की किरकिरी शहर में हो रही थी। आदेश था कि सार्वजनिक स्थल पर फोटोग्राफी करना वीडियो बनाना रील बनाना पूर्णतः प्रतिबंधित है। अब यदि आपको फोटो बनाना है रील बनानी है तो आपको संबंधित एसडीएम से अनुमति लेनी होगी। अब यह आदेश जितना बेतुका था इसका हश्र भी उतना ही निम्न स्तर का ही रहा और कुछ ही दिनों में यह आदेश वापस लेना पडा। क्योंकि आदेश के न सर था न पांव। यह आदेश क्यों लेना पड़ा? उसके पीछे की कहानी भी हम आपको बता देते हैं हुआ यूं था कि एक रील नायिका ने कलेक्ट्रेट कार्यालय पर जाकर टिप्टिप बरसा पानी पर रील बना दी थी जो वायरल हुई और उसकी शिकायत करने कुछ समाजसेवी कलेक्टर साहब के कार्यालय पहुंच गए। अब उस रेल नायिका पर कार्रवाई करने की बजाय कलेक्टर साहिबा। ने एक ऐसा फरमान जारी कर दिया जिसको देखकर लगने लगा रील और वीडियोग्राफी करने वाला हर व्यक्ति ही अपराधी है। खेर देर आए और दुरुस्त आए आदेश हुआ वापस और नागरिकों को मिली राहत। वर्षा ऋतु में मत्स्य प्रजनन काल होने की वजह से मत्स्य का उत्पादन
परिवहन दोहन न होने देने का आदेश, वर्षा ऋतु में नदियों से होने वाले रेत के खनन पर प्रतिबंध का आदेश। और हां एक आदेश और है जो हर साल जारी होता है वह है खेतों में पराली जलाने पर प्रतिबंध। लेकिन इन सभी आदेशों का हश्र होता है निल बट्टे सन्नाटा।
ऐसा ही एक आदेश मध्य प्रदेश के गुना जिले स्थित प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल वंदना। कॉन्वेंट के प्रिंसिपल द्वारा भी लिया गया जिसमें उन्होंने छात्रों के संस्कृत श्लोक बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया और अब यह खबर फैली तो हिंदूवादी संगठन स्कूल परिसर में पहुंच गए। जमकर हंगामा हुआ और हालात इतने बिगड गए कि स्कूल प्रबंधन पर एफआईआर तक करनी पड़ी। इस आदेश का भी हश्र वही हुआ जो बेतुके आदेशों का होता है प्रिंसिपल को माफी मांगनी पड़ी। और अपना ये तुगलकी फरमान वापस लेना पड़ा। इस तरह के आदेश किसी शहर या जिला तक ही सीमित नहीं हैं।प्रदेश के मुखिया भी ऐसे आदेश लेने में पीछे नहीं हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव से पहले आंगनवाड कार्यकर्ताओं और सही सहायिकाओं को सेवा निवृत्त होने पर सवा लाख रुपए एक मुफ्त देने का वादा किया था और उन्होंने तुरंत ही यह आदेश संबंधित अधिकारियों को दे दिया था कि इस पर एक योजना के रूप में कार्य कर इसे अमल में लाया जाए। इस बात को एक साल गुजर चुका है। और इस अवधि में पूरे मध्यप्रदेश की विभिन्न क्षेत्रों में लगभग 9 सौ आंगनवाड़ी कार्यकर्ताएं और सहायिकाएं सेवा निवृत्त हो चुकी हैं। लेकिन सवा लाख तो छोड़िए किसी एक को भी सवा कोडी तक नहीं मिली। यह सेवा निवृत्त कार्यकर्ता अब जिला परियोजना अधिकारी के दफ्तर चक्कर काट रही हैं। लेकिन इनको कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिल रहा है। राजनीतिक पार्टियां शिवराज सिंह चौहान के इस वादे को चुनावी जुमला कह सकती हैं। लेकिन उन हितग्राही आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का क्या जो यह सपना संजोए बैठी थीं कि मुख्यमंत्री के आदेश के बाद तो उनको सवा लाख रुपए मिलना तय ही है। लेकिन यह आदेश कहां गायब हो गया है? कहां फाइलों में दब गया है? इसके बारे में कोई जानकारी नहीं। ऐसा प्रतीत हो रहा है यह भी हवा बाजी में किया गया एक आदेश हो।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ॰ मोहन यादव भी जब से सत्ता में आए हैं लगातार बड़े बड़े आदेश दे रहे हैं लेकिन उनके भी कई आदेशों का हश्र निल बट्टे सन्नाटा साबित हो रहा है। मुख्यमंत्री बनते हैं डॉक्टर यादव ने आदेश जारी किया था। कि जहां पर भी लाउड स्पीकर से ध्वनि प्रदूषण फैलाया जा रहा है उन्हें हटाया जाएगा। शुरू के कुछ दिनों में विभिन्न जिलों के प्रशासन ने सक्रियता दिखाते हुए कई मस्जिदों के लाउड स्पीकर हटा के खानापूर्ति की कार्यवाही की थी। इसी तरह मुख्यमंत्री बनते ही डॉक्टर यादव नहीं पूरे प्रदेश में खुले में मांस मछली के बिकने पर प्रतिबंध लगा दिया था। हिंदूवादी संगठनों ने मुख्यमंत्री के इन आदेशों की भरपूर प्रशंसा की थी और उन्हें भी आशा थी। कि अब खुले में मास मच्छी बिकते हुए दिखाई नहीं देंगे। शुरू के कुछ दिन तक तो सघन कार्यवाही हुई। कई जगह पर मांस मच्छियों को पर्दे में ढक कर बेचना शुरू हुआ और कुछ जगह पर पूर्णतः बंद परिसर में। लेकिन समय के साथ आदेश का प्रभाव धुंधला होता गया और अब तो आलम यह है कि हर जगह आप खुले में बिक रहे मांस मछली देख सकते हैं।
यह कहावत निल बट्टे सन्नाटा को समझना जितना मुश्किल है उतना ही इन आदेशों को और इन आदेशों को देने के पीछे की मंशा को। जिस तरह से इस कहावत में निल (nill) एक अंग्रेजी शब्द है बट्टे (devided) का हिन्दी शब्द है और सन्नाटा..तो वही है जो इन आदेशों के अंत में छाया हुआ है। जब यह आदेश जारी होते हैं तो लगता है कि कोई बड़ी समस्या निल हो जाएगी। लेकिन कुछ दिनों बाद इन आदेशों पर ही सन्नाटा छा जाता है। कुल मिला कर चिंता का विषय यह है कि ऐसे आदेश ही क्यों देना जिनको अमल में न लाया जा सके। अब अमल में न लाए जाने के तमाम कारण हो सकते हैं। फिर भी यदि कोई आदेश जनहित से सरोकार नहीं रखता है तो ऐसा आदेश देना ही नहीं चाहिए और यदि कोई आदेश जनहित में बहुत जरूरी है तो ऐसे आदेश को जारी करने से पहले उसके क्रियान्वयन की पूरी रूपरेखा पना लेनी चाहिए ताकि इन आदेशों का हश्र वह न हो जो होता आ रहा है। आदेश दें तो ऐसा दें जो सर्वजन हिताय हो और एक उदाहरण साबित हो।
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