Tuesday, November 19, 2024
14.1 C
Delhi
Tuesday, November 19, 2024
HomeBig Newsसिंधिया काल में ग्वालियर से महाराष्ट्र पहुंचा था गणेश उत्सव, जिसने पूरे...

सिंधिया काल में ग्वालियर से महाराष्ट्र पहुंचा था गणेश उत्सव, जिसने पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन की अलख जगाई

गणेश उत्सव को भव्यता से मनाने की शुरुआत महाराष्ट्र। में नहीं बल्कि ग्वालियर में हुई थी।सिंधिया रियासत के समय पर यह उत्सव केवल ग्वालियर में भव्यता से मनाया जाता था।जिससे प्रभावित होकर 1892 में इसकी शुरुआत पुणे में की गई।

इस समय गणेश उत्सव की पूरे देश में धूम है और जब गणेश उत्सव की बात चलती है तो सबसे ऊपर नाम आता है महाराष्ट्र का। क्योंकि महाराष्ट्र में गणेश उत्सव में जिस तरह की भव्यता रहती है वह पूरे देश में शायद कहीं और देखने को नहीं मिलती। और ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि गणेश उत्सव की शुरुआत महाराष्ट्र में और खासकर महाराष्ट्र के पुणे शहर से हुई। लेकिन महाराष्ट्र में पुणे को ऐसे भव्य गणेश उत्सव के आयोजन की प्रेरणा कहां से मिली? यदि हम कहें के ग्वालियर में सिंधिया स्टेट टाइम पर भव्य गणेश उत्सव का आयोजन होता था। और इसे देखकर प्रेरणा लेकर इसकी शुरुआत महाराष्ट्र में की गई। इस बात को सुनकर आप आश्चर्य में पढ़ सकते हैं लेकिन यह हकीकत है। इसके तमाम प्रमाण हम आपको यहां प्रस्तुत करने वाले हैं। 

इन तथ्यों की खोज के लिए सबसे पहले हम बात करते हैं शनिवार वाणा गणेश महल पुणे की। जहां यह महाराष्ट्र में सबसे पहले प्रारम्भ किया गया था। श्रीमन्त सवाई माधवराव के शासनकाल में यह उत्सव शनिवारवाडा के गणेश महल में विशाल रूपसे होता था। उस समय यह उत्सव छः दिनों तक चलता था। गणेश विसर्जन की शोभायात्रा सरकारी लाव-लश्कर के साथ निकलकर ओंकारेश्वर घाट पहुँचती थी, जहाँ नदी में विग्रहका विसर्जन होता था। आगे चलकर यह उत्सव वहां के विभिन्न मराठा पटवर्धन, दीक्षित, मजुमदार आदि सरदारों के यहाँ भी भवित के साथ होने लगा था। उत्सव में कीर्तन, प्रवचन, रात्रिजागरण और गायन आदि भी होते थे। पुणे में निजीरूप से इस उत्सव को सरदार कृष्णाजी काशीनाथ उर्फ नाना साहेब खासगीवाले ने सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि कृष्णा जी काशीनाथ को भव्य गणेश उत्सव आयोजन का विचार आया कहां से? और यहीं से पता चलता है महाराष्ट्र में आयोजित किए जाने वाले भव्य गणेश उत्सव के ग्वालियर कनेक्शन का। सरदार कृष्णा जी काशीनाथ किसी व्यक्तिगत कार्य से सन् 1892 में वे ग्वालियर गए थे, जहां उन्होंने सिंधिया राजवंश के समय राजकीय ठाट-बाट का सार्वजनिक गणेश उत्सव देखा। वह गणेश उत्सव के इस भव्य आयोजन से इतना प्रभावित हुए कि पूना में भी उन्होंने इसे 1893 में आरम्भ कर दिया। पहले वर्ष खाजगीवाले, घोटवडेकर और भाऊ रंगारी ने अपने यहां सार्वजनिक रूप से गणेश-उत्सव आरम्भ किया। विसर्जन के लिए शोभायात्रा भी निकली। कहा जाता है कि खाजगीवाले के गणेश जी को शोभायात्रा में पहला स्थान मिला। इसके अगले वर्ष 1894 में इनकी संख्या बहुत बढ़ गई। अब पुणे में गणेश उत्सव को लेकर एक प्रतियोगिता सी। होने लगी जिसमें यह प्रयास किए जाने लगे कि। किसका गणेश उत्सव कितना भव्य रहे?किसकी झांकी कितनी मनमोहक रहे। इसके लिए ब्रह्मचारी बोवाने लोकमान्य और अण्णा साहेब पटवर्धन को निर्णायक बनाया। इन दोनों ने पुणे के ग्रामदेवता श्रीकसबागणपति और जोगेश्वरी के गणपति को क्रमशः पहला, दूसरा और तीसरा स्थान खाजगीवाले को दिया। आपको बता दें कि विभिन्न गणपति पंडालों को इस तरह आयोजन के उपरांत श्रेणियों मे बांटने का यह क्रम आज भी चालू है। 

लोकमान्य को गणेश उत्सव के रूप में राष्ट्र प्रेम की अलख जगाने का एक बड़ा।वसर हाथ लगा। उन्होंने इसे राष्ट्रीय उत्सव के रूप में परिवर्तित कर दिया-ज्ञानसत्र का रूप दे दिया। इस बारे में आप भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में विस्तृत रूप से पढ़ ही चुके होंगे और आपको इसकी जानकारी होगी। जब पहली बार मराठा नरेशों ने भी इसमें भाग लिया तो ब्रिटिश सरकार अप्रसन्न हो गई, क्योंकि लोगों में राष्ट्रीयता का संचार होता था तथा उसमें सरकार को विद्रोह के बीज दिखाई दे रहे थे, जिसे वह अंकुरित होने देना नहीं चाहती थी। लेकिन गणेश उत्सव मैं आमजन की अथा आस्था थी और लोग इस उत्सव से जुड़ते गए और लोकमान्य। तिलक ने गणेश उत्सव को पूरे महाराष्ट्र में इस तरह प्रसारित और प्रचारित किया राष्ट्र राष्ट्र प्रेम। की अलख जगाने में भी गणित उत्सव ने अहम भूमिका निभाई। महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में गणेश उत्सव देशभक्ति के प्रचारार्थ एक राष्ट्रीय उत्सव बन गया था। क्रान्तिकारी श्रीखानखाजेने अनुसार, उसे राष्ट्र धर्म का स्वरूप मिला है। उसी के अनुकरण पर ही मुंबई, अमरावती, वर्धा, नागपुर आदि नगरों में भी सार्वजनिक गणेश उत्सव आरम्भ हुए।

गणेश जी का मूलस्वरूप ॐ माना जाता है। इस रूप में उनकी प्रार्थना और पूजा अनादिकाल से चली आ रही है। किसी भी देवता का उपासक हो, फिर भी वह प्रथम गणेश पूजा के बाद ही अपने उपास्य देव को पूजा करता हैं। सभी धार्मिक कर्मकाण्ड प्रथम गणेश पूजन से ही आरम्भ होते हैं. यहां तक कि चाहे कोई मन्त्र हो-आदि में ॐ अवश्य लगा रहता है और अन्त में भी ॐ लगा दिया जाता है तो उसकी शक्ति और बढ़ जाती है। केवल भारत में ही नहीं, ब्रह्मदेश, हिंद चीन,स्थाम, तिब्बत, चीन, मैक्सिको, अफगानिस्तान, रूस, हिंदेशिया आदि देशों में ऐसे प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं, जिनसे यह प्रकट होता है कि वहीं भी श्रीगणेश उपासक का प्रभाव था. उन देशों से प्राप्त मूर्तियों के कई चित्र मूर्तिविज्ञान-विषयक ग्रन्थों में मिलते हैं।

धर्म के प्रचार प्रसार को और मजबूत करने के लिए छः दिनों के उत्सव को अब दस दिनों का बना दिया गया। अंग्रेजी शिक्षा के कारण हिंदू युवक आचार-भ्रष्ट और विचार- भ्रष्ट होने लगे।  उनमें हिंदू धर्म के प्रति अबद्धा पैदा होने लगी। देवी-देवताओं और पूजा-उपासना का वे मजाक उड़ाने लगे। इस अनिष्ट की और कई लोगों का ध्यान गया और वे इसके निराकरण का उपाय भी सोचने लगे। लोकमान्य ने इसके लिए गणेश-उत्सव को अपना साधन बनाया। इसके माध्यम से उन्होंने हिंदुओं में जीवन और जागरण उत्पन्न करने वाले कार्यक्रम रखने आरम्भ किए। कीर्तन, प्रवचन, व्याख्यान और मेला (ख्याल)- के साथ संगीत के तीनों अंग-गायन, वादन और नृत्य को त्रिवेणी को भी इसमें स्थान मिला। प्रहसन और नाटक भी इसकी शोभा बढ़ाने लगे। व्याख्यानों के विषय ऐसे रखे जाते थे, जिनसे अपने अतीत धर्म, वेदों और पुराणों, भारतीय साहित्य और संस्कृति, अपने देश, राम और रामायण, कृष्ण और गीता, ज्योतिष, संस्कृत और आयुर्वेद के प्रति लोगों को उत्पन्न होने वाली घृणा श्रद्धा में बदल गयी. उन्हें यह भान हुआ कि वेद और पुराण कल्पित नहीं है। विदेशियों और विशेषकर अंग्रेजों ने हमारे इतिहास को इस ढंगसे लिखा है कि हमारा अतीत कलुषित दिखायी दे। पर इन उत्सवों के माध्यम से अतीत के उज्वल पृष्ठ उजागर होकर सामने आने लगे। 
अपने-अपने विषय के विद्वान् वक्ता सब कुछ इस ढंग से व्याख्या करने लगे कि लाख प्रयत्न करने पर भी वे सरकारी कानून के शिकंजे में नहीं आ सके और जो कुछ कहना चाहते, धर्म की आड़में कह देते। प्रारम्भ में तो सरकार ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। पर जैसे-जैसे यह उत्सव अपना प्रभाव फैलाने लगा, इसकी किरणें देश में ही नहीं, विदेशों में, जैसे अदन, नैरोबी आदि में अपना प्रकाश फैलाने लगीं, सरकार के कान खड़े हो गए। उसमें उसे विद्रोह की झलक दिखायी देने लगी। इसे लेकर हिंदुओं में फूट डालने का भी प्रयत्न किया गया। लोकमान्य इन सब विरोधियों और सरकार के पक्षपातियों को अपने व्याख्यानों और ‘केसरी’ और ‘मराठा के इन दो पत्रों के माध्यम से मुंहतोड़ जवाब दिए, जिससे उनकी एक नहीं चली और जनता इसमें दुगुने उत्साह से सम्मिलित होने लगी। बाद में अंग्रेजों ने मुसलमानों को भड़काया कि ‘गणेश-उत्सव तुम्हारे विरोध में है.’ पर जब वे लोग इसमें सम्मिलित होते तो उनके सामने इसकी सत्यता उजागर हो जाती थी कि यह तो विशुद्ध धार्मिक पर्व है, जिसकी आड़ में राष्ट्रीयता का प्रचार होता है; किसी धर्म, जाति या सम्प्रदाय के विरोध में नहीं: अतः उनके भाषण भी उत्सवों में होने लगे. 1892 के बाद से 1920 तक एकाध अपवाद को छोड़‌कर कहीं भी सामुदायिक दंगे नहीं हुए। यह गणेशजी की ही कृपा थी। और आज भी गणेश उत्सव पर लग रहे पंडाल में सभी धर्म संप्रदाय के लोग एक साथ मिलकर गणेश जी की वंदना करते हैं।

अब गणेश उत्सव केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रहा, सारे देश में यह उत्साह के साथ मनाया जाने लगा. स्वामी ब्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, विपिनचन्द पाल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, अब्दुला ब्रेलवी, महामना मदनमोहन मालवीय, आचार्य ध्रुव, बाबू भगवानदास, नरीमान, सरोजिनी नायडू, मौलिचन्द्र शर्मा, जमनादास मेहता, पन्नालाल व्यास-जैसे हिंदू मुसलमान, पारसी आदि सभी धर्म कि प्रभावशाली लोग इनमें भाषण देने लगे और आम जन को स्वतंत्रता के आंदोलन से जोड़ने लगे। 

गणेश-उत्सव के कारण एक ओर जहां राष्ट्रीय चेतना को बल मिला तो दूसरी ओर साहित्य और कला को प्रोत्साहन मिला. उत्सवों के सभी कार्यक्रम मराठी, हिंदी या स्थानीय भारतीय भाषा में होते थे, जिससे भारतीय भाषाओं के प्रति जन-जन में आदर पैदा हुआ कि ये भी विद्वानों की भाषाएं हैं। और यह सब संभव हो सका गणेश उत्सव के भव्य आयोजनों के कारण। वहीं गणेशोत्सव जो भव्यता के साथ पहले ग्वालियर सिंधिया रियासत में मनाया जाता था। यहां गणेश उत्सव पर राजकीय ठाट वाड़ के साथ पार्वती नंदन गणेश के पंडाल लगते थे। लोग 6 दिन तक पूरी तरह गणेश जी की सेवा में लगकर धर्म का प्रचार प्रसार करते थे। और उसके बाद उन दो लोगों को पूरे राष्ट्र। में गणेश उत्सव मनाने की प्रेरणा देने का श्रेय जाता है जिनमें पहले हैं सरदार कृष्णाजी काशीनाथ उर्फ नाना साहेब खासगीवाले जिन्होंने ग्वालियर के गणेश उत्सव से प्रेरणा लेकर इसे पुणे में शुरू किया। और दूसरे हैं लोकमान्य तिलक जिन्होंने  स्वतन्त्रता आंदोलन में इसके महत्व को देखते हुए इसे पूरे महाराष्ट्र और अन्य राज्यों तक प्रसारित किया। 

theinglespost
theinglespost
Our vision is to spread knowledge for the betterment of society. Its a non profit portal to aware people by sharing true information on environment, cyber crime, health, education, technology and each small thing that can bring a big difference.
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular