सुनने में आ रहा है कि आज तीन मई विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। 1993 से तीन मई का विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। तो अमूमन दिवस तभी मानते हैं जब कोई नहीं रहता, और संभवत विश्व में भी प्रेस की स्वतंत्रता शायद दम तोड़ चुकी हो या तोड़ रही हो। यही वजह रही होगी कि यूनेस्को को लगा के चलो विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस ही मना लेते हैं। शायद 1993 से पहले पत्रकारिता का स्वर्णिम दौड़ रहा हो। पत्रकार जो लिखते हो वह समाज को आंदोलित और जागृत करता हो। देश और समाज को एक नई दिशा देता हो। लेकिन आज के हालात में पत्रकारिता के साथ स्वतंत्रता शब्द को जोड़ना एक विसंगति सा प्रतीत होता है।
पत्रकारिता के हालात क्या है, यह आज किसी से छुपे नहीं है। हर जगह ये चर्चा होती है के पहले खबरे छपने के बाद बिकती थी। और अब छपने से पहले ही बिक जाती है। और कुछ हद तक यह बात सही भी हो तो क्या किसी ने इसके पीछे की मूल हकीकत पर जानने का प्रयास किया है। जिस जनता को जागरूक करने सही दिशा दिखाने और मुद्दों की हकीकत बताने के लिए पत्रकार मुखर होकर लिखते हैं। क्या वह जनता कभी विशुद्ध पत्रकारिता की उस कीमत को समझती है? जनता हमेशा से कहती हैं कि उन्हें स्वतंत्र पक्षपात रहित पत्रकारिता चाहिए। लेकिन पचास रुपये का अखबार पाँच रुपये में खरीदकर पढ़ने वाली जनता ने कभी सोचा है बाकी के 45 रुपए जिन गलत संसाधनों से आते हों, उनकी जगह जनता स्वयं फंडिंग या चैरिटी करके और स्वतंत्र पत्रकारिता को मजबूत करे?

पत्रकारिता का क्षेत्र वर्तमान में तमाम चुनौतियों से घिरा हुआ है। तो यह चुनौतियां बढ़ती जा रही है। सबसे बड़ी चुनौती तो आर्थिक कमजोरी की ही है। जो भी अख़बार चैनल या डिजिटल मीडिया हाउस सरकार के विरोध में लिखते हैं उन्हें सरकार से तक विज्ञापन राशि के रूप में या अन्य प्रकार की कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलती है। जनता को ऐसे मीडिया हाउस की स्वतंत्र पत्रकारिता को बचाए रखने के लिए अपनी स्वयं की जवाबदेही भी सुनिश्चित करनी होगी। क्योंकि पत्रकारिता जनता की आवाज है जनता के हितों का हनन न हो इसीलिए सरकार का विरोध किया जाता है। आज भी देश में ऐसे तमाम छोटे बड़े मीडिया हाउस हैं। पत्रकार हैं जो जनहित के मुद्दे उठाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं यकीन मानिए जनता का साथ यदि मिल जाए तो यह और मजबूती से आवाज उठा सकते हैं।
लोकतंत्र में पत्रकारिता को चौथा स्तम्भ कहा जाता है और यह चौथा स्तंभ अन्य तीनों स्तंभों को चुनौती देकर जनता के हित की बात करता है। इस चौथे स्तंभ की मजबूती केवल जनता का विश्वास होता है। जनता का साथ होता है। लेकिन क्या आज हमारे देश की जनता हमारी पत्रकारों के साथ है? नेताओं, फिल्मी कलाकारों और यहां तक कि आतंकवादी की मौत पर तक लाखों की भीड़ इकट्ठा होने वाले देश में क्या कभी किसी पत्रकार की मौत पर जन सैलाब उमड़ा है? क्या जनता द्वारा कभी पत्रकारिता क्षेत्र में चुनौतियों और संघर्ष से जूझ रहे पत्रकारों के दयनीय हालत पर चिंतन मनन के लिए कोई कार्यशाला कार्यक्रम आयोजित हुए हैं?
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और यह देश जब गुलाम था तब से पत्रकारों ने जनहित में आवाज बुलंद करते हुए अपनी जान दी है। भारतीय पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी का उदाहरण ही ले लेते हैं। जिस समय देश में स्वतंत्रता के आंदोलन चल रहे थे। गणेश शंकर विद्यार्थी जी। ने कानपुर में 1913 में प्रताप नाम से एक अखबार। की शुरुआत की थी वह इस अखबार में अंग्रेजों। के विरुद्ध यानी सत्ता के विरुद्ध मुखर रहते थे और जनता को जागरूक करने की बात करते थे। जनता के मुद्दे उठाते थे। उन्हें अंग्रेजों द्वारा जेल भेजा गया कई तरह की यातनाएं। दी गई और प्रताड़ित होने के बावजूद भी गणेश शंकर विद्यार्थी विचलित नहीं हुए वह जनता के हित में आवाज उठाते रहे। लेकिन फ़िर 1931 में जो हुआ वह हैरान करने वाला है। कानपुर में दंगे होते हैं दंगा। रुकवाने के लिए कैलाश शंकर विद्यार्थी दंगाइयों के बीच में होते हैं लेकिन वही दंगाई जनता कैलाश शंकर विद्यार्थी को चाकुओं से गोदकर मार डालती है। शव की इतनी बुरी हालत होती है कि उन्हें पहचानना भी मुश्किल था और एक जांबाज पत्रकार की 41 साल की उम्र में मौत हो जाती है।

1931 में भारत अंग्रेजों का गुलाम था और आज हमारी खुद की चुनी हुई सरकारें हमसे गुलामी करा रही हैं। और पत्रकारों के हालात वही हैं। आज भी पत्रकार इसी तरह मारे जाते हैं। और उनको जनता का समर्थन तक नहीं मिलता। अभी आठ मार्च को पत्रकार राघवेन्द्र बाजपेयी की उत्तर प्रदेश के हेमपुर में बीच सडक पर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। जनहित के मुद्दे उठाने का खामियाज़ा उसे भुगतना पड़ा था। मतलब भारत गुलाम हो चाहे आजाद हो। पत्रकार मरेंगे। गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर राघवेन्द्र बाजपेयी तक पत्रकार मारने के लिए बने थे और आगे भी मरेंगे और सबसे बड़ी बात कि जिस जनता के मुद्दे वह उठाते हैं, वह जनता उनकी मौत पर खामोश रहेगी।
गौरी लंकेश ज्योतिर्मय डे रामचंद्र छत्रपति और न जाने कितने तमाम नाम हैं, जिन्होंने जनता को जागरूक करने के लिए जनता के मुद्दे उठाने के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर दी। पत्रकार यदि मरते हैं तो जनता के लिए मरते हैं और जनता उन्हें मरता हुआ छोड़ देती है। आज आज हर पनवाड़ी चौराहे जहां भी लोग खड़े होते हैं वहाँ प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता की बात करते चाहते हैं कि मीडिया निष्पक्ष होकर लिखें। लेकिन जो निष्पक्ष होकर लिखते हैं, जो माफिया के आगे नहीं झुकते जो सरकार के दबाव में नहीं आते जो दबंगों से खौफ नहीं खाते, उनका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता है।
प्रेस की स्वतंत्रता प्रेस की स्वतंत्रता तक सीमित नहीं है। पत्रकारिता स्वतंत्र रहेगी तो जनता स्वतंत्र रहेगी। अब यह जनता को समझना होगा जनता अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले प्रतिनिधि चाहती है। यदि जनता चाहती है कि लोकतंत्र पर तानाशाही हावी न हो।जनता की आवाज बनने वाला कोई हो। तो वक्त आ गया है कि जनता को अपनी जवाबदेही तय करनी होगी। पत्रकार की मौत पर सड़कों पर भी उतरना होगा। पत्रकार की मौत पर पत्रकार के परिवार के लिए जवाबदेह बनना होगा। और जो भी पत्रकार आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं उनके लिए भी जनता को आगे आना होगा। क्योंकि मुद्दा प्रेस की स्वतंत्रता का नहीं लोकतंत्र की मजबूती काणहै और जनता की स्वतंत्रता का है। एक और जब सरकारें गोदी मीडिया और चाटुकार पत्रकारों को पोषित कर रही है तो फिर जनता अपने हित। के मुद्दे उठाने वाले पत्रकारों को मजबूत बनाने का प्रयास क्यों नहीं करती?