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राजनीति के ‘ नीलकंठ ‘ थे  डॉ मनमोहन सिंह

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मन मोहन सिंह अपनी जीवन यात्रा पूरी कर अनंत यात्रा पर निकल गए। डॉ मन मोहन सिंह देश के 13  वे ऐसे प्रधानमंत्री  थे जो बिना बोले ,बिना अभिनय किये ,बिना जुमले उछाले देश के 10  साल तक प्रधानमंत्री रहे। डॉ मन मोहन सिंह के प्रति मेरा मन हमेशा से शृद्धा से भरा रहा ,क्योंकि सही अर्थों में वे देश के मौन सेवक थे ।  मौन ही उनका आभूषण था। मौन ही उनका हथियार भी था।  देश और दुनिया ने उन्हें कभी चीखते-चिल्लाते न सदन में देखा और न किसी रैली में। एक पत्रकार के रूप में मुझे डॉ मन मोहन सिंह से मिलने का अवसर आज से  कोई तीन दशक पहले तब मिला था जब वे देश के वित्त मंत्री थे ।  ग्वालियर के संसद और केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय माधव रॉ सिंधिया उन्हें लेकर ग्वालियर आये थे ।  उन्होंने बरई गांव में ग्रामीण हाट जैसी एक परियोजना का उद्घाटन किया था। उन्हें पहली बार मप्र चैंबर आफ कामर्स के सभागार में सुनने का मौक़ा मिला था। विद्व्त्ता उनके सम्भाषण से ही नहीं बल्कि उनके स्वभाव और  आचरण से टोकती थी।  वे एक खास लय में मुस्कराते थे।वे   विनोदी भी थे लेकिन उनका विनोद भी शालीनता की चाशनी में लिपटा रहता था।

देश का सौभाग्य रहा कि उसे डॉ मन मोहन सिंह जैसे विद्वान अर्थशास्त्री का नेतृत्व मिल।  वे आज की वित्तमंत्री श्रीमती निर्मला सीता रमण से बिलकुल भिन्न थे।  कोई माने या न माने लेकिन देश और दुनिया की तारीख में डॉ मन मोहन सिंह भारत में आर्थिक सुधारों  के जनक रहे ।  मुझे लगता है कि  वे राजनीति के लिए बने ही नहीं थे ,लेकिन उनका प्रारब्ध उन्हें राजनीति   में खींच लाया। कांग्रेस ने उनकी योग्यता को पहचाना और देश हिट में उन्हें रजनीतिक मंच पर सबसे शीर्ष पद पर खड़ा कर दिया ,अन्यथा वे तो एक अध्यापक थे ,राजनीति से उनका कोई लेना-देना था ही नहीं।
देश के विभाजन की विभीषिका  पर आज जो लोग लम्बे -चौड़े भाषण देते हैं उन्हें  शायद ये पता भी नहीं होगा कि  डॉ मन मोहन सिंह ने इस त्रासदी को अपने बचपन  में ही भुगता ,लेकिन वे इससे टूटे नहीं ,बिखरे नहीं। देश के विभाजन के बाद सिंह का परिवार भारत चला आया।  पंजाब विश्वविद्यालय से उन्होंने  स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे  पीएच. डी.करने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये।। डॉ सिंह ने  आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डी. फिल. भी किया। वे केवल प्राध्यापक ही नहीं बल्कि लेखक भी बने ।  उनकी पुस्तक ‘ इंडियाज़ एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एंड प्रोस्पेक्ट्स फॉर सेल्फ सस्टेंड ग्रोथ ” भारत की अन्तर्मुखी व्यापार नीति की पहली प्रामाणिक  आलोचना मानी जाती है।

डॉ॰ मन मोहन सिंह ने अर्थशास्त्र के अध्यापक के तौर पर अपनी पहचान बनाई और  ख्याति अर्जित की। वे पंजाब विश्वविद्यालय और बाद में प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकनामिक्स में प्राध्यापक रहे।  वे संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन सचिवालय में सलाहकार भी रहे और वे दो बार जेनेवा में साउथ कमीशन में सचिव भी रहे। उनकी विद्व्त्ता को पहचानकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पहली बार डॉ मनमोहन  सिंह   को  आर्थिक सलाहकार बनाया ।बाद  में वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के गवर्नर, प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष  जैसे अनेक मह्त्वपूर्ण पदों पर भी रहे।

देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री  पी वी नरसिंहराव ने मनमोहन सिंह को 1991में  वित्त मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार सौंप दिया। उस वक्त   डॉ॰ मनमोहन सिंह संसद के किसी भी सदन के    सदस्य नहीं थे।  उन्हें  उसी साल असम से राज्यसभा के लिए चुना गया।सही अर्थों में भारत को विश्वगुरु बनाने की नीयव डॉ मन मोहन सिंह ने ही रखी।  उन्होंने ही भारत की अर्थव्यवस्था को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।  भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाज़ार के साथ जोड़ने का श्रेय डॉ मन मोहन सिंह को ही है।


भारत की अर्थव्यवस्था  जब घुटनों के बल चल रही थी,और प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव को को भंयकर  आलोचनाओं   का शिकार होना पड़ा रहा था। आज का सत्ता पक्ष तब विपक्ष में था और उन्हें उन्हें नए आर्थिक प्रयोग से सावधान कर रहा था। लेकिन मात्र दो वर्ष बाद ही डॉ मन मोहन सिंह की सूझबूझ  से आलोचकों के मुँह बंद हो गए । उदारीकरण के बेहतरीन परिणाम भारतीय अर्थव्यवस्था में नज़र आने लगे पटरी पर लाया जा सका  । मजे की बात ये है की डॉ मन मोहन सिंह ने प्रधानमंत्री बनने का सपना कभी नहीं देख।  उनके नाम पर कांग्रेस ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा ,किन्तु वे न केवल एक बार प्रधानमंत्री बने बल्कि लगातार दो बार प्रधानमंत्री बने। उनकी नीली पगड़ी और भक्क सफेद कुर्ता -पायजामा ही पहचान बना ।  उन्होंने कभी अपने आपको फैशन प्रधान प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया।


आज के प्रधानमंत्री ने राजनीति की सारी लक्ष्मण रेखाएं लांघते हुए डॉ मन मोहन सिंह की जितनी आलोचना की उसका कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। लेकिन डॉ मन मोहन सिंह ने कभी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी ।  वे पार्टी के भीतर भी राहुल गांधी की उद्दंडता को मौन रहकर पी गए।  वे रणजीति के नीलकंठ थे। वे मतदान करने स्ट्रेचर पर सदन में आये  तब भी आज के प्रधानमंत्री ने उनके बारे में अभद्र और निर्लज्ज टिप्पणी की किन्तु डॉ मन मोहन सिंह ने अपना संयम नहीं खोया ,वे सदा मुस्कराते रहे। उनके ऊपर भ्र्ष्टाचार के जितने भी राजनीतिक आरोप लगे वे सभी में बेदाग साबित हुए। डॉ मन मोहन सिंह ने कभी  सत्ता का इस्तेमाल अपने परिवार  के लिए नहीं किया। उन्होंने कभी अपनी सादगी की झांकी नहीं लगाईं। उन्हें कठपुतली प्रधानमंत्री कहा गया किन्तु  उन्होंने अपने आपको देश का सबसे ज्यादा संजीदा प्रधानमंत्री साबित किया। वे नेहरू नहीं थे,वे इंदिरा गाँधी नहीं थे ,उनकी अपनी कोई राजनीतिक विरासत भी नहीं थी,किन्तु वे अपने पीछे राजनीति में सुचिता की जो पगडण्डी छोड़ गए हैं उस पर चलना न मोदी जी के लिए सम्भव है और न किसी राहुल गांधी के लिए। ऐसे अनूठे देश सेवक के प्रति मेरी विनम्र श्रृद्धांजलि।

इस स्मृतिशेष के लेखक राकेश अचल एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो राजनीतिक मामलों में गहरी पकड़ रखते हैं.

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