नवीनतम वार्षिक विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2024 में भारत 180 देशों में 159वें स्थान पर है। इससे पहले 2023 की सूची में भारत 161वें स्थान पर था। भारत ने दो अंकों की छलांग लगाते हुए अपनी रैंकिंग में सुधार किया है। क्या इस उपलब्धि पर हमें एक-दूसरे की पीठ थपथपानी चाहिए? हर बात पर इवेंट मनाने वाले सिस्टम को इस उपलब्धि पर भी क्या एक ग्रैंड इवेंट पूरे देश के हर कोने में आयोजित करना चाहिए? जिस पाकिस्तान को घूंट फूट पानी पीकर हम सालों से गरियाते आ रहे हैं वह भी भारत से सात पायदान ऊपर 152वें स्थान पर है। 2023 में यह 150वें स्थान पर था। नॉर्वे रैंकिंग में शीर्ष पर है, जबकि डेनमार्क विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में दूसरे स्थान पर है। सूची में स्वीडन तीसरे स्थान पर है। और इन तीनों में से कोई भी देश विश्व गुरु बनने की चाह नहीं रखता है वह चाह रखता है है भारत जिसके रैंकिंग बता रही है की विश्व गुरु बनने का सपना मुंगेरी लाल के हसीन सपने के समान ही है।
एक अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संगठन, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स कि यह रिपोर्ट चिंताजनक है। क्यों की हमारे देश में प्रतिदिन तमाम नए चैनल्स अखबारों करो की शुरुआत हो रही है। छोटे छोटे छोटे खबर नवीस से लेकर बड़े बड़े खबर व्यापारी इस क्षेत्र में अपना भाग्य आजमा रहे हैं। आज भी यहाँ जो खबर नबीस हैं शुद्ध पत्रकार हैं उनका उद्देश्य तो जनहित और देश हित में पत्रकारिता करना ही होता है और आर्थिक संकट के बीच भी वह अपने कलम को लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए करो। ही प्रयोग करते हैं। लेकिन इस क्षेत्र में अपने निस्वार्थ को लेकर आए तमाम छोटे बड़े न्यूज ट्रेडर्स ने स्थिति को गंभीर कर दिया है। इन्हें जो न्यूज़ ट्रेडर्स शब्द दिया है वह अपने आप में ही पर्याप्त है इनकी कार्यशैली को परिभाषित करने के लिए।
किसी भी शहर के जब किसी छोटे निजी अस्पताल में किसी मरीज की मौत हो जाती है तो उसको डॉक्टर की लापरवाही या गलत इंजेक्शन से मौत बता। उस अस्पताल का नाम बड़े बड़े अक्षरों में दिखा करो तमाम अखबार और न्यूज चैनल बिना सत्यता जाने उस अस्पताल का चीर हरण कर देते हैं। और जब बात किसी प्रतिष्ठित दबंग राजनीतिक रसूख रखने वाले व्यक्ति से संबंधित हो है तो फिर सब हकीकत सामने होने के बावजूद भी ऐसे अस्पताल के नाम को छुपाकर इन्हें बचाने का पूरा षडयंत्र ऐसे न्यूज ट्रेडर्स द्वारा किया जाता है। पिछले कुछ सालों की घटनाओं को याद करें तो हो सकता है आपको भी ऐसे ही किसी घटना की याद आ जाए। जब किसी रसूखदार व्यक्ति के बड़े अस्पताल को न्यूज ट्रेडर्स द्वारा बचाया गया हो हो सकता है कोरोना काल में ऐसी घटना हुई हो! हो सकता है कि मिलावटी प्लाज्मा से किसी की मौत हो गई हो और है अस्पताल का नाम छापने से न्यूज ट्रेडर्स परहेज कर गए हों।
तमाम शहरों में तमाम छोटे स्कूलों में कभी न कभी कुछ न कुछ घटनाएं हो जाती हैं और उन घटनाओं की भनक तक यदि इन कथित दिग्गज मीडिया हाउस जिन्हें न्यूज ट्रेडर्स संचालित करते हैं को लगे है तो उस स्कूल संचालक करो को सबसे बड़ा अपराधी घोषित कर दिया जाता है। करो उस स्कूल को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। तरह तरह के कुतर्क देकर स्कूल मालिक को ही मुख्य षड्यंत्रकारी कोशित कर दिया जाता है। लेकिन यदि कोई गंभीर से गंभीर अपराध भी इसी रख सूखदार बड़े मंत्री के स्कूल में हो जाए है तो यह न्यूज ट्रेडर्स इस स्कूल का नाम छापने से ऐसे परहेज करते हैं मानो किसी सर्जन ने कह रखा हो की यदि इस स्कूल का नाम लिया तो तुम्हें बदहजमी हो जाएगी है और तुम्हारा ठीक से ऑपरेशन करना पड़ेगा।
बड़े बड़े बड़े व्यापारियों और भू माफियाओं को ऐसे न्यूज ट्रेडर्स संरक्षण देते हैं क्योंकि पीछे ही पीछे दोनों का आर्थिक लाभ एक-दूसरे पर निर्भर होता है लेकिन शहर का छोटा व्यापारी है यदि दुकान के ऊपर बोर्ड भी निगम के नियम के। विरुद्ध लगा ले है तो उसका बड़ा सा फोटो। उसका पूरा नाम उसका पूरा पता और उसका पूरा गंभीर अपराध बड़ा महिमा मंडित करके परोसा जाता है। जब देश में यह सब घट रहा हो है तो फिर है भारत के मीडिया को उच्च स्तर की रैंकिंग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कैसे मिलेगी? मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और यदि ये चौथा स्तंभ न्यूज ट्रेडर्स के चंगुल नहीं रहा है तो यह स्तंभ खोखला होना स्वाभाविक है और यदि यह स्तंभ खोखला रहता है तो लोकतंत्र का मंदिर निस्संदेह ज्यादा लंबे समय टिक नहीं पाएगा!
अब सवाल यह उठता है कि भारतीय मीडिया में ख़बर नवीसों के ऊपर खबर व्यापारियों का वर्चस्व क्यों है? इसका मूल कारण यदि आप खोजें तो शायद आपको वह कारण नहीं मिलेगा क्योंकि एक कहावत है कस्तूरी कुंडली बसे मृग ढूंढे वन माही। इसी तरह से भारत की मीडिया की गिरती साख और इस क्षेत्र में न्यूज ट्रेडर्स के बढते कुप्रभाव का कारण आप, आप मतलब देश की जनता है। जी हाँ देश की वही जनता जिसको सब कुछ फ्री में चाहिए। देश के जिम्मेदार सत्ताधारियों ने फ्री की रेवडी खिला खिला इस देश की जनता को फ्री में खाने की बीमारी लगा दी है और अच्छी खासी है आए वाला व्यक्ति भी अखबार के नाम पर करो। पांच रुपए खर्च करने को भी फिजूलखर्ची मानता है और न्यूज चैनल और सोशल मीडिया पर खबरें भी उसे फ्री में चाहिए। जब ₹50 में छपने वाला अखबार एक आम आदमी को ₹5 में मिलेगा और ₹50 लाख महीना खर्च कर सैटेलाइट चैनल से प्रसारित खबरें फ्री में मिलेंगी है तो है यह बाकी का लाखों रुपये का अंतर और खबर नवीसों की तनखा ये न्यूज़ ट्रेडर्स कहां से निकालेंगे? आम नागरिक हमेशा वीडियो मीडिया को बिकाऊ कह यह आरोप लगाते देखा जाता है की करो सब कुछ बिका हुआ है और यह नसीहत भी देता है है मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए। काले लुटेरों के स्वागत में दो घंटे धूप में खड़े रहकर पचास रुपये की कीला पहनाने वाले और फिर उसकी सेल्फी सोशल मीडिया पर बहु प्रसारित करने वाले किसी आम आदमी ने क्या कभी स्वतंत्र मीडिया के निर्माण के लिए कुछ अंशदान किया है? जब लोकतन्त्र में सरकार है का निर्माण भी जनता करती है तो स्वतंत्र मीडिया का निर्माण भी जनता को ही करना होगा। जनता की भागीदारी के बिना न तो स्वतंत्र मीडिया का निर्माण संभव है न ही मजबूत लोकतंत्र का।